श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्याय – 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi

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श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi, श्रीमद् भगवदगीता एक अद्वितीय धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथ है जो महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत आता है। यह ग्रंथ भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है और इसमें आध्यात्मिकता, धर्म, और मानवीय जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का विवेचन किया गया है। “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग | 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi

श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi
श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi

श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग

पाँचवें अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने भगवान से “कर्मसंन्यास” (सांख्य योग) तथा कर्मयोग इन दोनों में से कौन सा साधन निश्चितरूप से कल्याणकारी है यह जानने की प्रार्थना की | तब भगवान ने दोनों साधनों को कल्याणकारी बताया और फल में दोनों समान हैं फिर भी साधन में सुगमता होने से कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग की श्रेष्ठता सिद्ध की है | बाद में उन दोनों साधनों का स्वरूप, उनकी विधि और उनका फल अच्छी तरह से समझाया | “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi”

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इसके उपरांत उन दोनों के लिए अति उपयोगी और मुख्य उपाय समझकर संक्षेप में ध्यानयोग का भी वर्णन किया, लेकिन उन दोनों में से कौन-सा साधन करना यह बात अर्जुन स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाया और ध्यानयोग का अंगसहित विस्तृत वर्णन करने के लिए छठे अध्याय का आरम्भ करते हैं | प्रथम भक्तियुक्त कर्मयोग में प्रवृत्त करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं | “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi”

Sixth Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi

।। अथ षष्टोऽध्यायः ।। श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग ।।

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।1।।

श्री भगवान बोलेः जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है |(1)

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन।।2।।

हे अर्जुन ! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता |(2)

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।3।।

योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्कामभाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है |(3)

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।4।।

जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है |(4)

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।5।।

अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करें और अपने को अधोगति में न डालें, क्योंकि यह मनुष्य, आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है |(5)

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6।।

जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बरतता है |(6)

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।7।।

सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख आदि में तथा मान और अपमान में जिसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ भली भाँति शांत हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानन्दघन परमात्मा, सम्यक् प्रकार से ही स्थित है अर्थात् उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं |(7)

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः।।8।।

जिसका अन्तःकरण ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इन्द्रियाँ भली भाँति जीती हुई हैं और जिसके लिए मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं, वह योगी युक्त अर्थात् भगवत्प्राप्त है, ऐसा कहा जाता है |(8)

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।9।।

सुहृद्, मित्र, वैरी उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है |(9)

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।10।।

मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा लगावे |(10) “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजनिकुशोत्तरम्।।11।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।12।।

शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमशः कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे |(11,12)

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
संप्रेक्ष्यनासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।13।।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।14।।

काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, भयरहित तथा भली भाँति शान्त अन्तःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमें चित्तवाला और मेरे परायण होकर स्थित होवे |(13,14)

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।15।।

वश में किये हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठारूप शान्ति को प्राप्त होता है |(15)

नात्याश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।16।।

हे अर्जुन ! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने के स्वभाववाले का और न सदा ही जागने वाले का ही सिद्ध होता है |(16)

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।17।।

दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है |(17)

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।18।।

अत्यन्त वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली भाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है |(18)

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मनः।।19।।

जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है |(19)

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।20।।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।21।।
यं लब्धवा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।22।।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।23।।

योग के अभ्यास से निरुद्ध चित्त जिस अवस्था में उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमात्मा के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात् करता हुआ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है | इन्द्रियों से अतीत, केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित यह योगी परमात्मा के स्वरूप से विचलित होता ही नहीं |

परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता | जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए | वह योग न उकताए हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है |

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्तवा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।24।।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।।25।।

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेषरूप से त्यागकर और मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोककर क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे |(24,25)

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।26।।

यह स्थिर न रहने वाला और चञ्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा में ही निरुद्ध करे | “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मष्म।।27।।

क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शान्त है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है|(27)

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।28।।

वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनन्त आनन्द का अनुभव करता है |(28)

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।29।।

सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है |(29)

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।30।।

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता |(30)

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।31।।

जो पुरुष एकीभाव में स्थित होकर सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझ में ही बरतता है |(31)

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।32।।

हे अर्जुन ! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है |(32)

"श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi"
“श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi”

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।33।।

अर्जुन बोलेः हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसकी नित्य स्थिति को नहीं देखता हूँ |(33)

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।34।।

क्योंकि हे श्री कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है | इसलिए उसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ |

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।35।।

श्री भगवान बोलेः हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है |(35)

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।36।।

जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है – यह मेरा मत है |(36)

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।37।।

अर्जुन बोलेः हे श्रीकृष्ण ! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किंतु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है |(37)

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।38।।

हे महाबाहो ! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?(38) “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।।39।।

हे श्रीकृष्ण ! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं, क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है |(39)

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।।40।।

श्रीमान् भगवान बोलेः हे पार्थ ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे ! आत्मोद्धार के लिए अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता |(40)

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।41।।

योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों लोकों को अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरणवाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है |(41)

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।42।।

अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है | परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है |(42)

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।43।।

वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात् रामबुद्धि रूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन ! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है |(43)

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।44।।

वह श्रीमानों के घर जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है |(44)

प्रयत्नाद्यातमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।45।।

परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परम गति को प्राप्त हो जाता है |(45)

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।46।।

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है और सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इससे हे अर्जुन तू योगी हो |(46)

योगिनामपि सर्वेषां मद् गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।47।।

सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |(47)

ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः | |6 | |

इस प्रकार उपनिषद्, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्ररूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में ‘आत्मसंयमयोग नामक छठा अध्याय संपूर्ण हुआ |


आत्मसंयमयोग का विवरण

श्रीमद् भगवदगीता पाँचवाँ अध्यायः कर्मसंन्यासयोग, 5th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi
“श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

छठे अध्याय “आत्मसंयमयोग” में गीता भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आत्मसंयम के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की महत्वपूर्णता का वर्णन करती है। आत्मसंयम योगी को अपने मन, इंद्रियों, और भावनाओं के संयम में उत्तरदायित्व में सहायता करता है और उसकी आत्मा को शांति और समृद्धि की दिशा में अग्रसर करता है। “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

आत्मसंयम के महत्वपूर्ण सिद्धांत

आत्मसंयमयोग गीता में आध्यात्मिक विकास और आत्म-नियंत्रण के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को प्रकट करता है। योगी को अपने मन को शांत और स्थिर रखने, इंद्रियों को नियंत्रित करने, और अपने भावनाओं के माध्यम से आत्मा की पहचान करने की कला सिखाता है। यह योगी के आध्यात्मिक उन्नति और समृद्धि की दिशा में मदद करता है। “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

साधना का मार्ग

आत्मसंयमयोग गीता में साधना के मार्ग को भी प्रस्तुत करता है। यह योगी को अपनी आत्मा को जानने और समझने के लिए मार्गदर्शन करता है ताकि वह अपने आदर्शों के प्रति संज्ञानमय रूप से आगे बढ़ सके। आत्मसंयमयोग योगी को अपने आत्मा की महत्वपूर्णता को समझने का और उसकी उन्नति की दिशा में प्रोत्साहित करने का मार्ग दिखाता है।

आत्मसंयम के फायदे

यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि आत्मसंयम योगी को आत्मा की शांति, स्थिरता, और समृद्धि प्रदान करता है। यह योगी को उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन करता है और उसे अपने आदर्शों के प्रति संज्ञानमय रूप से आगे बढ़ने में मदद करता है। “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”

अध्ययन और अनुष्ठान का महत्व

आत्मसंयमयोग का अध्ययन करना और उसे अपने जीवन में अनुष्ठान करना आत्मा की मुक्ति और समृद्धि की दिशा में महत्वपूर्ण है। यह योगी को आत्मा की महत्वपूर्णता को समझने और अपने आदर्शों के प्रति संज्ञानमय रूप से आगे बढ़ने में मदद करता है। “श्रीमद् भगवदगीता छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग, 6th Chapter of Shreemad Bhagvat Geeta in Hindi,”


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